Koteshwar Mahadev Mandir – कोटेश्वर महादेव मंदिर

हिन्दू धर्म के पवित्र मंदिरों में से एक है कोटेश्वर मन्दिर, ये भगवान शिव को समर्पित एक प्राचीन मंदिर है, जो उत्तराखंड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले के मेन मार्केट से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

यहां एक गुफा है, जिसमें प्राकृतिक रूप से निर्मित शिवलिंग की पूजा की जाती है।

इस गुफा के बारे में मान्यता है कि भगवान शिव, भस्मासुर नामक राक्षस से बचने के लिए यहां पर लंबे समय तक रहे थे।

इसके अलावा इस गुफा के बारे में मान्यता है कि,यही वह गुफा है, जिसे होते हुए भगवान शिव केदारनाथ गए थे।

इस गुफा की खूबसूरती यह है कि इसमें अनेकों शिवलिंग आपको देखने को मिलेंगे।

इस गुफा में शिवलिंग के अतिरिक्त माता पार्वती, माँ दुर्गा, भगवान गणेश और नाग देवता की मूर्तियाँ भी मौजूद हैं।

माना जाता है कि ये सभी मूर्तियाँ प्राकृतिक रूप से यहाँ अवतरित हुई थीं।

गुफा के बाहर बड़ी-बड़ी चट्टानों पर सुन्दर कलाकृतियाँ की गयी हैं, जो इस जगह को और भी आकर्षक बनाती है।
इस गुफा के बारे में यह भी मान्यता है कि यह गुफा भस्मासुर के काल से इसी स्वरुप में हैं।

मान्यताओं के अनुसार मंदिर का निर्माण लगभग 14वीं शताब्दी का माना जाता है,लेकिन 16 वीं और 17वीं शताब्दी में मंदिर का पुनः निर्माण किया गया था।

अलकनंदा नदी के तट पर बसा हुआ यह मंदिर श्रद्धालुओं और पर्यटकों का आकर्षण का केंद्र है।

इस दिव्य मंदिर का वर्णन स्कंदपुराण के केदारखण्ड में स्पष्ट रूप से किया गया है।

अपने पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व को संजोये हुए इस मंदिर में वैसे तो प्रतिदिन श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है,लेकिन खासतौर पर शिवरात्रि के दिन यहां पर भक्तजनों की अत्यधिक संख्या देखने को मिलती है।

कोटेश्वर महादेव मंदिर इतिहास/कहानी (Koteshwar Mahadev Temple Rudraprayag History/Story)

कोटेश्वर महादेव मंदिर, इस जगह की सुंदरता जितना महत्व रखती है, उतना ही महत्व इस मन्दिर का इतिहास रखता है,जो हर किसी को अपनी ओर मोहित कर देता है।

तो आइए जानते है,खूबसूरत पहाड़ों के बीच स्थित इस मंदिर के पूरे इतिहास के बारे में ।

कहानी 1#

ये बात है, उस समय की जब भस्मासुर नामक राक्षश हुआ करता था।

कहा जाता है कि एक समय था जब भस्मासुर ने भगवान शिव से वर प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की।

भस्मासुर की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भोलेनाथ ने भस्मासुर को दर्शन दिए और वर मांगने को कहा।

तो भस्मासुर ने यह वरदान मांगा की वह जिसके सिर पे भी हाथ रखे, वह उसी क्षण भस्म हो जाए, ओर भगवान शिव ने भस्मासुर नामक असुर के वरदान को स्वीकार कर उसे तथास्तु होने का आशीर्वाद दिया।

फिर क्या था, ऐसा वरदान प्राप्त कर अहंकार के मद में भस्मासुर ने इस वरदान को आजमाने के लिए भगवान शिव को ही चुना ।

उसके बाद भगवान शिव जहां भी जाते, भस्मासुर उनके पीछे-पीछे जाकर वहीं पहुंच जाया करता था।

कहा जाता है कि भस्मासुर से बचने के लिए शिवजी ने कोटेश्वर महादेव मंदिर के पास स्थित गुफा में रहकर कुछ समय बिताया था ओर भस्मासुर का संहार करने के लिए यहाँ पर जगत पालक श्री बिष्णु का ध्यान किया था।

जिसके परिणामस्वरूप भगवान विष्णु एक सुन्दर महिला “मोहनी” का रूप धारण कर भस्मासुर के समक्ष प्रकट हुए।

राक्षस भस्मासुर, मोहनी के रूप को देखकर अन्यंत मोहित हो गया और मोहनी के साथ नृत्य करने लगा।

अंततः मोहनी ने नृत्य करते-करते अपना हाथ अपने सर पर रखा, मोहनी की नृत्य को दोहराते हुए भस्मासुर ने भी अपना हाथ, अपने सर पर रख दिया और भगवान शिव के वरदान के अनुसार खुद को ही भस्म कर दिया।

इस प्रकार से भगवान विष्णु ने भस्मासुर का वध कर शिवजी की सहायता की थी, जिसके पश्चात भगवान शिव कोटेश्वर गुफा से बाहर आये।

Koteshwar Mahadev Mandir - कोटेश्वर महादेव मंदिर
Koteshwar Mahadev Mandir – कोटेश्वर महादेव मंदिर

कहानी 2#

इस मंदिर के बारे में यह भी मान्यता है कि पूर्व काल में इसी स्थान पर एक कोटि ( एक करोड़) ब्रह्म राक्षसों ने भगवान शिव की कठोर उपासना की थी।

इनके कठोर तप को देख भगवान शिव ने प्रसन्न होकर इन्हें दर्शन दिए और मनचाहे वर मांगने को कहा।

तो उन्होंने भोलेनाथ से दो वरदान मांगे-
पहला कि हमें इस राक्षस योनि से मुक्ति मिल जाए ।

और दूसरा कि आने वाले भविष्य में जब हमारे वंशज समाप्त हो जाएं, तो इसके बाद भी हमारा नाम अजर अमर रहे।

तो भगवान शिव ने उन्हें अस्वासन दिया कि में यहाँ पर आप लोगों के नाम से कोटेश्वर महादेव के रूप में इस गुफा में विराजमान रहूंगा।

कहानी 3#

इस मंदिर का इतिहास महाभारत काल से भी जुड़ा हुआ है।

कहा जाता है कि जब महाभारत युद्ध के दौरान कुरुक्षेत्र में हुए नरसंहार से पाण्डव व्याकुल थे,तो अपनी व्याकुलता को दूर करने के लिए पांचों भाई पांडव महादेव के दर्शन करना चाहते थे, किंतु कुरुक्षेत्र में हुए भयानक नरसंहार के कारण भगवान शिव पाण्डवों से खफा थे जिसके चलते वह उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे।

लेकिन पांडवो ने भी, स्वयं को ब्रह्म हत्या के प्रकोप से मुक्त करने के लिए भगवान शिव के दर्शनों को पाने की ठान ली थी, जिसके चलते महादेव जहां भी जाते पांडव उनके पीछे-पीछे वहीं जाते।

कहा जाता है कि महादेव पाण्डवों को अपना पीछा करते हुए देख इसी गुफा से होते हुए गुप्तकाशी पहुंचे और गुप्तकाशी से केदारनाथ चले गए थे।

क्योंकि महादेव इतनी आसानी से पाण्डवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे।

ओर पांडव भी भगवान का पीछा करते हुए केदारनाथ पहुंच गए और तबतक भगवान शंकर ने बैल का रूप धारण कर लिया था,जिससे कि वह उन्हें पहचान न सके ।

लेकिन पांडवों को इस बात पर सन्देह हो गया।

ऐसे में भीम ने अपना विशाल रूप धारण किया और अपने पैरों को दो पहाडों पर फैला दिया। ऐसे में अन्य गाय – बैल तो भीम के पैरों के नीचे से निकल गए परन्तु शंकर रूपी बैल भीम के पैरों के नीचे से नहीं गया।

जब भीम ने शकंर रूपी बैल को पकड़ना चाहा तो वह शंकर रुपी बैल धीरे – धीरे जमीन के अन्दर अन्तर्धान होने लगा परन्तु भीम ने शंकर रूपी बैल का पैर पकड़ लिया ।

कहा जाता है कि पांडवों की शिव भक्ति के प्रति पूर्ण समर्पण और दृढ़ संकल्प को देख महादेव प्रसन्न हुए और पाँचों पांडवों को दर्शन देकर उन्हें ब्रहमहत्या के प्रकोप से मुक्त कर दिया।

मान्यता है कि जब महादेव शिव बैल के रूप में अन्तर्ध्यान हुए तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमांडू जो कि नेपाल की राजधानी है,से लगभग 5 किलोमीटर उत्तर -पूर्व में बागमती नदी के तट पर प्रकट हुआ।

अब वहाँ पशुपतिनाथ का भव्य मंदिर है, जो कि भगवान शिव को समर्पित एशिया के चार सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में से एक है।

शिव की भुजायें तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मध्यमहेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुई और शंकर रूपी बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजी जाती है।

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